23 अक्तूबर 2010

श्राद्ध

विश्व के कोने -कोने में क्षेत्र विशेष के विशेष -विशेष मनुष्यों में कोई न कोई ऐसी प्रथा पाई जाती है जिसमे मृतकों के प्रति कर्त्तव्य निर्वाह की व्यवस्था है| संस्कृत में यह प्रथा , यह विषय 'श्राद्ध' नाम से जाना जाता है | यह प्रथाएं अनेकानेक प्रकार की हैं किन्तु सबको श्राद्ध  कहा जा सकता है |
श्राद्ध का अर्थ क्या है ? 'श्रद्धया दीयते यस्तु इत्यर्थे श्राद्ध'  अर्थात जो श्रद्धापूर्वक दिया जाए वह श्रद्धा है | और श्रद्धा क्या है ? 'श्रत सत्यं अस्मिन धीयते इत्यर्थे श्रद्धा ' अर्थात जब कोई विचार या चरम बिंदु सर्वोच्च मान लिया जाता है तो वह विचार या चरम बिंदु 'श्रत' नाम से जाना जाता है और जब मन अपनी सम्पूर्ण वृतियों के सहित उस उधेश्य की ओर चलता है तो उस मानसिक गति को कहते हैं 'श्रद्धा' | श्रत + धा = श्रद्धा |
अब श्रद्धा या श्राद्ध पर विश्व में प्रचलित विभिन्न रीतिरिवाजों की दृष्टि से विचार किया जाए  |
श्रद्धा के साथ जब कोई वस्तु दी जाती है तो उसे श्राद्ध कहते हैं | एक पुरोहित कह सकता है ,तुम्हारे पिता एक ही बार न मरेंगे ,अतः उनके मरने के बाद पर्याप्त मात्रा में खाद्य सामग्री ,अन्न ,वस्त्र आदि-आदि उनके लिए देना चाहिए |यह सब भारतवर्ष में पांच हज़ार वर्षों से होता आ रहा है, अथर्व वेद के समय से | लोग मृत व्यक्ति ले लिए, जो संसार छोड़ चुका है,घी,शहद,चावल ,दाल आदि देते रहे |
इस विषय में चार्वाक ने (जो २५०० वर्ष पूर्व बुद्ध के समय में,वास्तव में बुद्ध से कुछ पहले ही थे और चार्वाक के शिष्य अजित केश कम्बली बुद्ध के समकालीन थे ) कहा है ,' यदि तुम एक  कमरे में रहो और एक आदमी आँगन में दाल भात कुछ ही गज की दूरी से दे तो उस कोठरी में रहने वाले मनुष्य को वह दाल-भात प्राप्त नहीं होगा और उसकी शुधा शांत नहीं होगी |
और यदि मनुष्य किसी दूसरे लोक में हो, अपरलोक में हो और तुम उसे दाल-भात दे रहे हो तो क्या वह पायेगा ? क्या यह तर्कपूर्ण है ? नहीं,नहीं - यह सब सुविधाभोगी लोगों का शोषण है ,और कुछ नहीं |
दाल,भात,कपड़ा-लत्ता आदि देने के बाद तुम क्या देखते हो ? दाल-भात पुरोहित खाता है | उसके भोजनागार में जाकर देख लो |
वह और उसका परिवार ही वह अन्न खाता-पीता है | धोती, साड़ी जो देते हो वह भी वह और उसका परिवार पहनता है | गमछे,बर्तन आदि का उपयोग वही करते हैं , और यदि आवश्यकता से अधिक हुआ तो बाज़ार में बेच दिया जाता है | तुम्हारे मृत माता-पिता जो परलोकवासी हैं कुछ पाते नहीं |
दूसरी बात जो तुम देखोगे और अनुभव करोगे वह यह की वास्तव में मृत व्यक्तियों को उन वस्तुओं की कोई आवश्यकता नहीं रहती | अणुचैतन्य या जीवात्मा को किसी भोजन,बर्तन आदि की आवश्यकता नहीं रहती है | यह सब विचार दुष्ट हैं और यह शोषण लगभग ५००० वर्षों से,अथर्व वेद के समय से चला आ रहा है |
विश्व के कुछ भागों में लोग चालीस दिन तक प्रतीक्षा करते है और उसके बाद विशेष प्रकार की प्रार्थनाएं करते हैं और उन कृत प्रार्थनाओं के परिणामस्वरूप यह आशा की जाती है की मृतात्माओं की स्थिति संरक्षित होगी | क्या यह तर्कपूर्ण है | कदापि नहीं | मृतात्माओं के नाम पर किया गया यह सब कार्य, व्यापार धोखाधड़ी है |
प्रागैतिहासिक युग [prehistoric period ] में जब लोग बहुत कम उन्नतमना [mentally less developed ] थे , इसी प्रकार सोचते थे कि मृत्यु के बाद भी मृत व्यक्ति सांसारिक पदार्थ चाहते हैं |इसलिए प्रागैतिहासिक काल में कब्रों के अन्दर अन्न,शराब,ऊन आदि पाए जाते हैं |चादरें , क्या मृत व्यक्ति उन्हें ओढेंगे?
सम्पूर्ण विश्व में इस प्रकार का शोषण कार्य चल रहा है | और लोग क्यों शोषित किये जा रहे हैं ? मात्र इसी कारण कि उनमें अंधविश्वास घर कर गया है | वे अंध विश्वासी लोग हैं | वे बुद्धि के क्षेत्र में कम विकसित हैं |
मुझे एक छोटी सी कहानी स्मरण आ रही है |मेरे शहर में एक व्यापारी थे | मान लो, उनका नाम डोमन साहू था | उनके पिता भी व्यापारी थे | वे दिन में व्यापारी और रात में डाकू के रूप में कार्य करते थे | उनका नाम मान लो मोहन साहू था | एक बहुत बड़े पंडित कश्मीर से आये और उन्होंने घोषणा की कि उनके मंत्र में ऐसी शक्ति है कि वे सभी पापियों के  लिए , पतितों के लिए , पतित आत्माओं के लिए स्वर्ग में स्थान सुरक्षित करा दे सकते हैं |डोमन साहू ने सोचा कि मेरे पिता मोहन साहू तो डाकू हैं | लाओ क्यों न पंडित कि सहायता से मैं अपने पिता के लिए स्वर्ग में स्थान सुरक्षित कर लूँ | वह पंडित के पास गए | पंडित ने कहा, 'ठीक है ,ठीक है , मैं सब व्यवस्था कर दूंगा ,किन्तु मैं ५० गिन्नी लूँगा यह करने कि फीस |
डोमन के मित्र थे एक रवि घोष ,एक अत्यंत भले आदमी | रवि घोष ने कहा ,डोमन ,पंडित एक व्यापारी है इसलिए वह ५० गिन्नी मांगता है | तुम एक काम करो | कुछ सौदेबाजी  करो | पंडित से कहो , 'पंडित जी , मैं मात्र ४० चाँदी के सिक्के दे सकता हूँ ,अतः आप इसी पर मान जाने कि कृपा करें'|
डोमन ने जब पंडित से कहा तो पंडित बोले ,'ठीक है ,किन्तु यदि पचास गिन्नी रही होती तो स्वर्ग के नंदन कानन में पारिजात वृक्ष के नीचे ही तुम्हारे पिता को स्थान मिलता |यदि चाँदी के पचास सिक्के दे रहे हो तो वह केवल स्वर्ग के दरवाजे तक ही पहुँच पावेंगे '|
डोमन ने सोचा ठीक ही तो है | फाटक तक पहुँचने पर मेरे पिता शेष दूरी तो पैदल चलकर तय कर लेंगे | यह अच्छा है |मुझे मात्र चालीस चाँदी के सिक्के ही व्यय करने चाहिए |
किन्तु डोमन फिर रवि घोष के पास गए | रवि घोष ने राय दी,'हम लोगों का पहला प्रयास सफल हुआ | अब पंडित जी से जाकर कहो कि में मात्र ३० चाँदी के सिक्के ही खर्च कर पाऊंगा | यह कहे जाने पर पंडित जी ने कहा,'तब वैसी दशा में स्वर्ग से दूरी और बढ जाएगी '| और इस प्रकार सौदेबाजी चलती रही और मामला मात्र चाँदी के दस सिक्कों पर आकर तय हो गया |

तब मनुष्य को करना क्या चाहिए ? क्या मृत व्यक्ति के प्रति हमारा कोई सामाजिक दायित्व नहीं है ? जब अवसर उपस्थित हो तो हमें उनके प्रति श्रद्धा निवेदित करना चाहिए, न कि गेहूं ,जौ,चावल,दाल,शाल,दुशाला,घी आदि | यह किस प्रकार करेंगे ? जब तक कोई हमारे समाज में है हमारा उसके प्रति एक सामाजिक दायित्व है | मनुष्य सामाजिक प्राणी है और हमारा सामाजिक दायित्व बनता है | जब मनुष्य यह संसार छोड़ कर दूसरे संसार में चला जाता है तब से हमारे उत्तरदायित्व कि सीमारेखा को
पार कर जाते हैं | हम उनकी सेवा नहीं कर सकते | अंतिम संस्कार के बाद हमारा दायित्व समाप्त हो जाता है |
उसके बाद हमें क्या करना उचित है ? हम प्रार्थना कर सकते हैं , 'हे परमपुरुष , जब तक वह व्यष्टि[व्यक्ति] हमारे समाज में थे जो भी संभव था हमने उनकी सेवा कि किन्तु अब वे हमारे क्षेत्र के बाहर हैं, अतः कृपया अब आप उनकी देख-रेख करें '| मात्र यह प्रार्थना परमपुरुष से कि जा सकती है ,उससे अधिक कुछ नहीं | आनंदमार्ग कि श्राद्ध विधि ठीक इसी प्रकार कि है | उसमे हमें न तो किसी खाद्य पदार्थ कि आवश्यकता है, न वस्त्र कि | हम अपनी श्रद्धा मात्र अर्पित करते हैं | हम कुछ और नहीं करते, न कर ही सकते हैं |
         (पटना, १८ अक्तूबर १९७८ )

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें