8 अगस्त 2009

संग्राम और क्षमा




सामाजिक दृष्टी का आभाव ही अधिकांश अनर्थों का मूल है। सबल मनुष्य दुर्बल मनुष्यों के ऊपर अत्याचार कर रहे हैं। सबल मानव-गोष्ठी दुर्बल मानव गोष्ठी का शोषण कर रही है। ऐसी अवस्था में सत् मनुष्य मात्र का ही अन्यायियों के विरूद्व लडाई करना कर्तव्य है। नैतिक उपदेशों द्वारा ही काम होगा , इसी आशा में अनंत काल तक चुपचाप बैठने से काम नही चलेगा। इसलिए सत् व्यक्तियों को संघबद्ध होना होगा। दानवों के विरूद्व लड़ाई के लिए तैयारी करनी होगी।


सामूहिक जीवन के ऊपर अथवा किसी मानव-गोष्ठी के ऊपर जो लोग जुल्म करते हैं, उन्हें क्षमा नही किया जा सकता है। ऐसी अवस्था में क्षमा करना केवल दुर्बलता ही नही वरन इससे अन्याय को भी आश्रय मिलता है। अन्यायी और भी बेपरवाह तथा उदंड बन जाते हैं।


व्यक्तिगत जीवन में किसी निर्दोष व्यक्ति के ऊपर कोई असाधु व्यक्ति यदि जोर- जुल्म करता है, ऐसी दशा में वह निर्दोष व्यक्ति अपनी सहनशक्ति की परीक्षा के लिए अथवा अन्य किसी कारण से उस असाधु,जुल्मी को अपनी इच्छा से क्षमा कर भी सकता है किंतु यदि वह जुल्मी किसी मानवगोष्ठी के ऊपर अत्याचार करता है तब तो ऐसी हालत में इस गोष्ठी के प्रतिनिधि के रूप में कोई व्यक्ति विशेष इस अन्यायी को क्षमा नही कर सकता है|

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