21 जून 2009

पापी का उद्धार

मनुष्य और पशु में मौलिक पार्थक्य यह है कि पशु परमपुरूष द्वारा निर्धारित नियमानुकूल कार्य करता है ; वह स्वाभाविक रूप से प्रकृति के वश रहकर कार्य करता है । मनुष्य अपनी इच्छाशक्ति और मानसशक्ति के अनुकूल करता है। पशु को उन्नत मन नही है , किंतु मनुष्य को है। इसलिए मनुष्य यदि अपने उन्नत मन को ठीक तरह कम में नही लगाता तो वह पशु से भी अधम काम करता है। शारीरिक कारणवश मनुष्य-मनुष्य में मानसिक पार्थक्य अवश्य रहता है और इस मानसिक पार्थक्य के पीछे नानाविध संस्कारज संवेग रहता है। मनुष्य अच्छा काम भी कर सकता है और ख़राब काम भी कर सकता है। अर्थात् वह शेष पर्यंत ऋणात्मक प्रतिसंचर के पथ में भी चल सकता है।
पाप कहने से सही रूप में क्या समझा जाता है? जो करना उचित नही है उसे किया जाए तो पाप कहते है ; और जो करना उचित है , वह नही किया जाए तो उसे प्रत्यवाय कहते हैं । पाप और प्रत्यवाय का मिलित नाम है पातक । इसलिए कोई पातकी जो पापकर्म करता ,वह बड़ा अपराधी होने पर भी अक्षम्य नही है। पातकी का उद्धार या पापमुक्ति हो सकती है यदि वह अतीत के पाप को भूलकर अध्यात्मिक पथ को पकड़कर चलने लगे । द्वितीय प्रकार के पातकी को अतिपातकी कहा जाता है । अतिपातकी उसे कहते हैं जिसने किसी निर्दिष्ट मनुष्य की स्थायी शारीरिक या मानसिक क्षति की है। तृतीय प्रकार के पातकी को महापातकी कहा जाता है। महापातकी के अपराध का असर पुनः पुनः होता है। महापातकी के लिए मुक्ति का सर्वोत्तम उपाय है अपने व्येष्टिक (व्यक्तिगत )सुखसुविधा को विसर्जन कर मानव कल्याण का व्रत लेकर अपने को उत्सर्ग तो करना ही तदतरिक्त उसे ऐसा कुछ करना होगा जिसका फल मानवजाति के लिए चिर कल्याणप्रद हो।
श्री श्री आनंदमूर्ति

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