12 जुलाई 2023

सत्य का परमाश्रय

 



- श्री श्री आनंदमूर्ति

 

आनन्दाध्यैव खल्विामानि भूतानि जायन्ते। 

आनन्देन जातानि जीवन्ति आनन्दं प्रयत्त्यभिसं विशन्ति।


प्रत्येक वस्तु – अणु अथवा भूमा जो कुछ भी बनता है या बनाया जाता है – वह सब आनन्दघन सत्ता से ही आता है। ‘आनन्देन जातानि जीवन्ति’ अर्थात् इस अनन्त आनन्द की उपस्थिति के कारण प्रत्येक और सभी सृष्ट अस्तित्व संसार में रहना चाहते हैं। ‘आनन्दं प्रयन्त्यंभिसंविशन्ति’ अर्थात् अन्ततः प्रत्येक और सभी अस्तित्व पुनः उसी आनन्दघन सत्ता में अथवा आनन्द की अवस्थिति में विलीन हो जाते हैं। यही एक  कारण है जिससे मनुष्य अधिक-से-अधिक जीना चाहते हैं। यह आनन्दघन सत्ता ही इस विश्व में एकमात्र सत्य है।


सत्य क्या है? ‘सत्’, अर्थात् अपरिवर्तनीय अस्तित्व, जब पूर्णतया प्रतिष्ठित हो जाता है, अर्थात जब अपरिवर्तनीयता की चरमावस्था में पहुँच जाता है, तब वह ‘सत्य’ कहा जाता है। अतः मनुष्य को उसी सत्य के पथ पर चलना चाहिए। सत्य को ही अपना एकमात्र लक्ष्य बनाना चाहिए। मात्र यही एक मार्ग है, यही भयमुक्त रास्ता है, जिसमें कोई भय नहीं है, डरने को कुछ नहीं है। यजुर्वेद कहता है:


सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः। 

यनाक्रमन्त्षयोः यो ह्याप्तकामा यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानम्।।


अन्ततोगत्वा प्रत्येक और सभी संघर्षों में, युद्धों में तथा कार्यों में सत्य की विजय होती ही है। ‘सत्यमेव जयते नानृतम्’ अर्थात सत्य सफल होकर रहता है, असत्य विजयी नहीं होता। ‘सत्येन पन्था विततो देवयानः’ - तुम्हारी भगवत्ता का पथ सत्य के द्वारा प्रशस्त होता है अर्थात् यह सत्य मार्ग को इस प्रकार प्रशस्त कर देता है कि भगवत्ता की प्राप्ति सम्भव हो जाती है।


आप्तवाक्य परम पुरुष का वचन है और प्राप्त वाक्य लौकिक विद्वानों के वचन हैं जैसे पुस्तक आदि। जिस व्यष्टि की सम्पूर्ण इच्छायें परम पुरुष की सन्निकटता के कारण सन्तुष्ट हो गई हैं उसे ‘आप्तकाम’ कहते हैं। यह ‘आप्तकाम ऋषि’ पूर्व काल में इसी सत्य के मार्ग पर चलते रहे और अन्ततः सत्य के परमाश्रय के सम्पर्क में आ गये। ‘यत्र तत् सत्यस्य परमंनिधानम्’ अर्थात् वे उस स्थान पर पहुँच गये जो सत्य का अन्तिम आश्रयस्थल है। अतः ऋषियों ने कहा: 


सत्य व्रतं सत्य परं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितं च सत्य। 

सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः।।


उस सत्यस्वरूप परम पुरुष अथवा आनन्दघन सत्ता की विशेषतायें क्या हैं? 


”बृहच्च तद्‌ दिव्यमचिन्त्यरूपं सूक्ष्माच्च तत्‌ सूक्ष्मतरं विभाति।

दूरात्‌ सुदूरे तदिहान्तिके च पश्यन्त्विहैव निहितं गुहायाम्‌ ॥” 


‘बृहच्य तद्दिव्यमचिन्त्यरूपं’। वह बहुत बड़े हैं, बहुत, बहुत, बहुत बड़े हैं ! इतने बड़े कि तुम्हारी दृष्टिशक्ति उनके सम्पर्क में नहीं आ सकती। तुम्हारी दृष्टि शक्ति सीमित है। इसका क्षेत्र एक विशेष तरंग दीर्घता से दूसरी विशेष तरंग दीर्घता तक ही सीमित है। किन्तु वह उससे बड़े है, तुम्हारी दृष्टिशक्ति से कहीं बहुत अधिक बड़े हैं। वे न केवल तुम्हारी दृष्टि शक्ति से परे हैं बल्कि वे ‘अचिन्त्यरूपम’ हैं अर्थात वे तुम्हारे अणु सत्ता के स्पन्दन से भी परे हैं। अर्थात् न तो वे तुम्हारे इन्द्रियगम्य हैं और न ही ‘मन अनुभव्य’ हैं। ‘उनकी’ दिव्य ज्योति तुम्हारी इन्द्रियों अथवा तुम्हारे मन के द्वारा नहीं नापी जा सकती हैं। ‘सूक्ष्माच्च तत् सूक्ष्म तरं विभति’ अर्थात् ‘वे’ न केवल बहुत बड़े हैं बल्कि बहुत, बहुत छोटे भी हैं, बहुत सूक्ष्म हैं, इतने छोटे कि तुम्हारी इन्द्रियाँ उनका अनुभव नहीं कर सकतीं, न देख सकती हैं, न छू सकती हैं। वे छोटे हैं किन्तु ज्योतिर्मय हैं।   


‘दूरात्सुदूरे तदिहान्तिके च’। ‘दूर’ का अर्थ है लम्बी दूरी और ‘सूदूर’ का अर्थ है बहुत, बहुत लम्बी दूरी। कभी-कभी तुम सोच सकते हो कि तुम्हारी आवाज, तुम्हारी अभिव्यक्ति उन्हें सुनाई या दिखाई न पड़ती हो। यदि तुम ऐसा सोचते हो, तो तुम्हारे सम्पूर्ण प्रयास, तुम्हारी मूल अभिव्यक्तियाँ (एकाउस्टिक एक्सप्रेशन) अथवा मानसिक प्रयास व्यर्थ हो जायेंगे क्योंकि जब तुम सोचोगे के कि वे दूर हैं, तो वे दूर नहीं, उससे भी दूर होंगे। यदि तुम सोचोगे कि वे निकट नहीं हैं, दूर हैं, तो वे दूरतर हैं। यदि तुम सोचो कि वे निकट हैं, तो वे निकट हैं, वे तुम्हारी कल्पना से भी अधिक समीप हैं।


जिन्होंने अन्तर्दृष्टि पा ली है, वे अनुभव करेंगे कि परम पुरुष उनके ही भीतर में हैं। जब वे तुम्हारे अपने ‘मैं’ भाव में हैं, तब उन्हें जानने के लिए उन्हें पाने के लिए इतस्ततः क्यों भटकते हो, ठीक उसी तरह जैसे कोई राजा सम्पूर्ण सम्पत्ति के होते हुए भी द्वार-द्वार पर भिक्षाटन करता हो?


परम पुरुष को पूर्ण उत्साह के साथ, पूर्ण निष्ठा के साथ और प्रेम के साथ स्वयं अपने में ढूंढ़ो। तब वह ज्योतिर्मय सत्ता तुम्हारे हृदय में अपनी पूर्ण ज्योति के साथ प्रगट हो जायेगी। 

 

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